धर्म क्या है? धर्म शब्द का अर्थ क्या है? धर्म के कितने प्रकार हैं? हमारा धर्म क्या है?
अगर आप सनातन धर्म के ग्रंथों में धर्म के बारे में पड़ेंगे तो धर्म की अनेकों परिभाषाएं दी गई. हम पर भाषाओं को पढ़कर लोग यह सोचते हैं कि आखिर धर्म क्या है? जैसे महाभारत मैं कहा कि
अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है फिर महाभारत मैं कहा कि मनुष्य जन्म उदारता को ही धर्म कहते हैं फिर महाभारत मैं कहा कि ज्ञानी जन दंड को धर्म मानते हैं फिर महाभारत मैं कहा कि सत्य ही धर्म है फिर महाभारत ने कहा कि सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले मनुष्यों ने दान को धर्म बताया है ऐसी परिभाषा केवल महाभारत में ही नहीं अन्य ग्रंथों में भी है
इतनी सारी पर भाषाओं में से धर्म क्या है यह जानने से पहले यह जान लेते हैं कि धर्म शब्द का अर्थ क्या है? तो धर्म शब्द का अर्थ होता है धारण करना प्रश्न क्या धारण करना चाहिए उत्तर जो धारण करने योग्य हो उसे ही धारण करना चाहिए प्रश्न क्या धारण करने योग्य है उत्तर जो धर्म ग्रंथों ने कहा है सत्य क्षमा दया विद्या उनको धारण करना चाहिए अब आते हैं मूल प्रश्न पर धर्म क्या है जो धारण करने योग्य है उसे धर्म कहते हैं इसलिए जो महाभारत ने कहा कि कर्म में लगे रहना उदारता दंड सत्य दान धर्म है इसका अर्थ यह है कि यह धारण करने योग्य है इसलिए धर्म को निभाना चाहिए अर्थात इनको धारण करना चाहिए दूसरे शब्दों में जो सनातन धर्म के ग्रंथों में धर्म के बारे में कहा गया है कि यह धर्म है यह धर्म है और मनुष्य को धर्म का पालन करना चाहिए इसका भाव यह है कि यह धारण करने योग्य है
धारण करने योग्य नहीं है और मनुष्य को धारण करना चाहिए एवं पालन करना चाहिए उदाहरण के लिए कर्म में लगे रहना धर्म है अर्थात कर्म में लगे रहना धारण करने योग्य है उदारता धर्म है अर्थात उदारता धारण करने योग्य है सत्य धर्म है अर्थात सत्य धारण करने योग्य है दया धर्म है अर्थात दया धारण करने योग्य है मन में एक और प्रश्न उठ सकता है यह धारण करने योग्य क्यों है क्यों हम सत्य क्षमा विद्या दया आदि को धारण करें क्यों हम असत्य क्रोध अविद्या कुर्ता आदि को धारण नहीं करें यह ग्रंथ कौन होता है हमें सिखाने वाला तो इसका उत्तर बड़ा सरल है अगर आप असत्य क्रोध अविद्या क्रूरता को धर्म मानेले यानी धारण कर लें ऐसा करते ही स्वयं का और पूरे समाज का बुरा दिन शुरू हो जाएगा क्योंकि फिर कोई व्यक्ति किसी की मदद नहीं करेगा हमेशा झूठ बोलेगा पढ़ाई नहीं करेगा यानी अज्ञानी बनेगा जिससे समाज
मैं अज्ञानता से लेगी लोग हिंसक हो जाएंगे तो ऐसे असभ्य लोग एवं असभ्य समाज की कल्पना ही भयभीत कर लेती है अतएव ग्रंथों में ऐसे धर्म को बताया जो धारण करने योग्य है एवं जिससे स्वयं और समाज की उन्नति हो सके जहां तक रे बाद हिंदू मुस्लिम ईसाई जैन या बौद्ध धर्म की तो यह धर्म ना होकर संप्रदाय या समुदाय मात्र है संप्रदाय एक परंपरा या एकमत को मानने वालों का समूह है अतः इन्हें धर्म कहना सर्वथा असत्य है अब आते हैं धर्म के प्रकार तो धर्म के दो प्रकार होते हैं क्यों इसलिए क्योंकि धर्म का अर्थ है धारण करना धारण करने के लिए हमारे पास 2 चीजें हैं पहला आत्मा और दूसरा शरीर हम आत्मा है परंतु आत्मा को शरीर चाहिए कर्म करने के लिए तो आत्मा और शरीर यह दो है इसलिए दो प्रकार के धर्म है अब प्रश्न यह है कि धारण करने वाला कौन है उत्तर मन है
क्योंकि ब्रह्मा बिंदु उपनिषद ने कहा मन ही सभी मनुष्यों के बंधन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है इसलिए मन द्वारा ही कर्म होता है अतः दोनों प्रकार के धर्म को धारण मन को करना है अस्तु हमें दो चीजें धारण करना है एक आत्मा के लिए एक शरीर के लिए इस प्रकार 2 धर्म हो गए एक तो आत्मा का और दूसरा शरीर का इस कारण से विधु में दो प्रकार के धर्मों का वर्णन है एक आत्मा के लिए दूसरा शरीर के लिए अब इनको अलग-अलग ढंग से अनेक नामों से बताया गया है वह जितने ढंग से बताए गए हो या तो वह शरीर को धारण करने के लिए बताए गए होंगे या तो आत्मा को धारण करने के लिए बताए गए होंगे पहला धर्म आत्मा के लिए आत्मा का धर्म है परमात्मा को धारण करना अर्थात आत्मा के लिए केवल भगवान धारण करने योग्य है क्योंकि परमात्मा आत्मा और माया यह तीन तत्व है इनमें से आत्मा परमात्मा का अंश है माया का नहीं श्रीमद्भागवत पुराण ने कहा
इसमें सूती जी कहते हैं महर्षि योग आपने संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए यह बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है क्योंकि यह प्रश्न श्री कृष्ण के संबंध में है और इससे भली-भांति आत्म शुद्धि हो जाती है मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है जिससे भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति हो वह भक्ति भी ऐसी जिसमें किसी प्रकार की कामना ना हो और जो नित्य निरंतर बनी रहे ऐसी भक्ति से हृदय आनंद स्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है अस्तु तो सूत जी कहते हैं किसी प्रकार की कामना ना हो और नित्य निरंतर हो देव भगवान को धारण करना यह आत्मा का धर्म है और यह आत्मा का जो धर्म है वह नित्य निरंतर धर्म है अर्थात सदा धारण करना है किसी भी समय आत्मा के धर्म का त्याग नहीं करना है अतएव आत्मा का धर्म है भगवान की उपासना करना यानी भक्ति करना जिसमें एक काम ना ना हो
और वह उपासना नित्य निरंतर हो एक महत्वपूर्ण बात है कि इस आत्मा के धर्म में परिवर्तन नहीं होता क्योंकि आत्मा परिवर्तनशील नहीं है सभी को भक्ति करनी चाहिए चाहे वह किसी भी अवस्था में हूं अब आते हैं शरीर के लिए तो शरीर का धर्म है माया को धारण करना अर्थात शरीर के लिए केवल माया धारण करने योग्य है क्योंकि परमात्मा आत्मा और माया यह तीन तत्व है इनमें से शरीर संसार का अंश है यानी शरीर माया यानी पंच तत्व से बना है अब यह सर इस संसार में रहता है इसलिए संसार अच्छे से चले उसके लिए क्या शरीर धारण करें वह ग्रंथों ने कहा है जिसे हम वर्णाश्रम धर्म के नाम से जानते हैं वर्णाश्रम धर्म वर्ण अर्थात ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र और आश्रम यानी ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ और सन्यास यह चार आश्रम है ध्यान दें यह शरीर परिवर्तनशील है जैसे पहले बाल्यवस्था
युवावस्था फिर वृद्धावस्था ऐसे बदलता रहता है शरीर इसीलिए शरीर के भी सभी धर्म परिवर्तनशील है जैसे 100 वर्ष की मनुष्य आयु के अनुसार 25 वर्ष ब्रह्मचर्य 25 वर्ष गलत फिर 25 वर्ष वानप्रस्थ और फिर 25 वर्ष सन्यास या हर 25 वर्ष के बाद शरीर का धर्म बदल जा रहा है अस्तु या शरीर पंचतत्व से बना है इसलिए शरीर को पंचतत्व चाहिए तभी यह शरीर जीवित रह सकेगा अर्थात शरीर को आकाश यानी खाली जगह चाहिए हमारे शरीर में तमाम खाली जगह है फिर पृथ्वी यानी ठोस पदार्थ फिर चल चाहिए फिर अग्नि चाहिए शरीर को गर्म रखने के लिए फिर हवा भी चाहिए यह सब हमारे शरीर को धारण करना है जब तक जीवन है तब तक तभी शरीर ढंग से चल पाएगा अब हमारा आहार भी धर्म युक्त हो यानी धारण करने योग्य हो अन्यथा अधर्म युक्त भोजन यानी गलत भोजन का सेवन करने से यह शरीर सही से नहीं चलता
जिस प्रकार वर्णाश्रम धर्म परिवर्तनशील है उसी प्रकार हम जो खाते हैं वह भी परिवर्तनशील है युवा अवस्था में जो भोजन ग्रहण करते हैं वह वृद्धावस्था में नहीं कर सकते हो भोजन को भी अवस्था अनुसार बदलकर ग्रहण करना पड़ता है यह बात हमारे ग्रंथ भी कहते हैं और आज का विज्ञान भी कहता है अस्तु अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न हमारा धर्म क्या है तू हम आत्मा है शरीर नहीं इसलिए हमारा मुख्य धर्म आत्मा का ही है जो है भक्ति यानी उपासना करना परंतु भक्ति करने के लिए एक स्वस्थ शरीर एवं भक्ति के लिए अनुकूल समाज चाहिए अति में जो वर्णाश्रम धर्म है इसका ठीक-ठीक पालन हो तभी एक अच्छा समाज बन पाएगा जिसमें सभी व्यक्ति उपासना करके जीवन सफल बना पाएंगे तो वर्णाश्रम धर्म जो शरीर का धर्म है वह परिवर्तनशील है जैसे ब्रम्हचर्य के बाद ग्रह अस्त ग्रस्त के बाद आना प्रस्तावना प्रश्न के बाद सन्यास यह बदलते जाते हैं
परंतु आत्मा का धर्म परिवर्तन शील नहीं है क्योंकि आत्मा के धर्म का पालन ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ और सन्यास यह चारों आश्रमों में करना है अर्थात जो गीता कहती है जिसमें भगवान श्री कृष्ण अर्जुन जी से कह रहे हैं कि तू सब समय में मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर यानी सब समय भक्ति ह्यूमन द्वारा भगवान का स्मरण करना यह भक्ति तो सब समय भक्ति हो और युद्ध कर युद्ध करना यानी क्षत्रिय धर्म का पालन कर अर्थात जो शरीर का धर्म है जो वर्णाश्रम धर्म है इसका भी साथ-साथ पालन हो लेकिन इसमें महत्वपूर्ण भक्ति है क्योंकि शरीर के धर्म का पालन तो सब कर सकते हैं लेकिन साथ-साथ भक्ति करना यह अधिकतर लोग नहीं करते इसीलिए श्री कृष्ण कहते हैं कि सर्वप्रथम मेरा स्मरण हो उसके बाद शरीर के धर्म का पालन भी हो दोनों का पालन हो बस.