वर्षों पहले जो निकले थे.. चंद पैसे कमाने के लिए..
आज पलायन घर को कर रहे.. वो जिंदगी बचाने के लिए..
मीलों के इस सफर पर.. वो पैदल ही चल पड़े थे..
कदमों में साहस भर लिए थे.. अपनी मंजिल को पाने के लिए..
क्षुधा की तड़पन मिटाने.. रुक गए जब कदम उनके..
रोटी भी ना आई नसीब में.. भूख इनकी मिटाने के लिए
कुछ के परिजन चल बसे थे.. इस सफर की राह में ही..
कमबख्त जल भी ना मिला.. उनकी अंत्येष्टि कराने के लिए..
मुफलिसी का हाल ज़ाहिर.. भी ना कर पाए कहीं पे..
खुद की कश्ती डूबा आए.. गैरों की बस्ती बसाने के लिए..
ऊंची इमारतें बना आए जो.. हश्र उनका यूं हुआ कुछ..
दो गज जमीन भी ना हुई मुनासिब.. इनकी लाशें दफनाने के लिए..
और क्या लिखे कलम ये.. बेबसी उन “मजदूरों” की..
ना वो बचे ना शब्द मेरे.. हाल उनका बताने के लिए..