ये बात किसी के समझ में आख़िर क्यू नही आता है..
की यूँ ही नही हँसते-हँसते कोई लेखक बन जाता है..
कटाक्षों को वो सहता है दुःख की धारा में बहता है..
खुद को पिरोकर शब्दों में एक नयी कविता बन जाता है..
शब्दों का जो मेल और तुकबंदी का जो खेल है..
ठीक तरह से ये उसको सबको समझाना आता है..
दिन-रात सदा चिंतन करता सुख-दुःख के दामन में पलता..
तब जाकर इन विचारों से वो चार छंद लिख पाता है..
प्यार, मोहब्बत, तन्हाई जब एक साथ समझाना हो..
बना क़ाफ़िया क़लम को अपनी ख़ुद रदीफ बन जाता है..
जब बात हो अपने ज़ख़्मों की वो किससे कहने जाएगा..
उन चोटों पे वो स्याही का ख़ुद ही मरहम बन जाता है..