वो पूछती है मुझसे क्या मैं ठीक हूँ?
हाँ माँ, मैं घर हूँ, सुरक्षित हूँ ।
कुछ गरीब किसानों की फसले नष्ट हुई,
तो वहीं एक माँ अपने बेटे की घर वापसी की आस लगाये चौखट पर बैठी है…
पर हाँ माँ, मैं घर हूँ, सुरक्षित हूँ ।
वो राम था, एक किसान था,
उसे ना स्वर्ग के पितृ, रात की रोटी दे पाये,
ना दे पाये उसे एक सुरक्षित कल की सांत्वना;
वो बिस्मिल था, एक श्रमिक था,
कहाँ दे पाया उसका खुदा उसे चैन की नींद कि उसकी
बिन जन्मी बेटी जो पले अपनी माँ की कोख मे, वोह भी चले मीलों ,
चले उसकी अर्धान्गिनी भी दूर;
हाँ माँ, मैं घर हूँ, सुरक्षित हूँ ।
कुछ बेजुबां जाने हैं सडक पर,
कदर किसी को नहीं क्युकि ना मजहब उनका कोई ना है उनका कोई खुदा
पर थे कुछ मासूम जिन्हें मौत ने गले लगाया ,
थक हरकर, हताश, बैठे थे जो पटरी पर
उन्हे आखिर मृत्यु ने ही गले लगाया,
ले चली एक काल की ओर जहाँ मजहब से उपर था एक न्यायधीश;
हाँ माँ, मैं घर हूँ, सुरक्षित हूँ ।
जहाँ एक ओर गुहार कई सूनी, अन्सुनि कर दी,
वहीं मज़ाक बना लम्बी कतारों का।
हाँ , वो कतारे थीं शराब की क्युंकि शराब ही है हुज़ूर जिसने मधहोशी भी दी और सुकून भी,
पर आज भी ना देखा मजहब उसने पीने वाले का।
हाँ मज़ाक बना उन पीड़ितों का, जिन्होनें नियम ना माने
जिन्होनें एक बोरी चावल कि कीमत चुकायी अपने लहू से
पर ऐसी भी क्या हताशा कि लहू के दाम बिका वोह अनाज?
कोई ना खडा हुआ, ना उठकर खडा हुआ पडताल करने,
क्यूँ मासूमो कि चुप्पी आज हर कहीं सुनाई देती?
क्यूँ एक किसान आज खुद का बोया ना काट पाया?
क्यूँ ग्रीष्म भी इन श्रमिकों के पग ना रोक पाया?
क्यूँ परिजनों को गले लगना भी नसीब ना हो पाया?
हाँ माँ, मैं घर हूँ, सुरक्षित हूँ ।
आज देखा मैने, सुनी एक विवाहित कि पीड़ा,
सह्ती है अपने शौहर का प्रहार।
आज देखा, पर कुछ दिखा नहीं ,
सुना, पर सुनाई कुछ दिया नहीं ।
शायद यही सीख दी है,
शायद यही विकल्प रहा है सदियों पुराना ;
आँखे मूँद ली, शायद कभी कोई और सुन ले उस पीडित का अफ्साना ।
हाँ माँ, मैं घर हूँ, सुरक्षित हूँ ।