अक्सर जगाती हैं यह रात मुझे कभी सोने नहीं देती
नींद और सपने कब के बीछड़़े मुझसे यह उनका होने नहीं देती
जो शख़्स कभी ख़ास दिल के पास था उसको खोने नहीं देती
यह रात भी बड़ी अजीब हैं मुझे बिछड़ों की याद में रोने नहीं देती
लेटता तो रोज़ हूं बिस्तर पे पर रात का नशा मुझे चुर कर देता है
साहिर की शायरी गुलज़ार का खयाल यूं मुझ में नूर भर देता हैं
जो आए मन में बुरा विचार तो सन्नाटा उसे बर्बर कर देता है
यह रात का नशा हैं जो एक अंदाज़ नया मुझमें बसर कर देता है
हां अब मोहब्बत हैं मुझे इस रात से यह बहुत ख़ामोश हैं
कभी शायरी कभी कविता में हो रहा यहां शब्दों का आगोश हैं
तू मेरा और तेरे शब्द भी अब मेरे हैं रात कर रही यह सर्गोश हैं
मै जागता “रात” तेरे लिए मगर इसमें मेरे कर्मों का भी दोष हैं