कभी शाम ढले खिड़की में बैठें हम यूं सोचा करते है..
के काश फिर से बचपन की सैर करने को मिले..
इस बोझ से दबी उम्र में थोड़ी राहत सी मिले..
चाहत फिर से जगे जीवन में और उम्मीदों के फूल खिले
वह स्कूल का बस्ता.. वह गांव का रास्ता फिर से मिले
कभी शाम ढले खिड़की में बैठें हम यूं सोचा करते है…
के वह यार वह दोस्त जो हमें भूल गए हैं उन्हें फिर से मिले
जो अब कच्चे हो चुके हैं रिश्ते उन्हें फिर से बुनने को मिले…
कभी शाम ढले खिड़की में बैठें हम यूं सोचा करते हैं…
के इस थके हुए मन को थोड़ी राहत सी मिले..
जो खयाल खाएं जा रहें हैं हमें अंदर से उनकी आहट ना मिले
कभी शाम ढले खिड़की में बैठें हम यूं सोचा करते है..
के काश फिर से बचपन की सैर करने को मिले
इस बोझ से दबी उम्र में थोड़ी राहत सी मिले…